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जाती रहीं किधर वो मोहब्बत की बानियाँ | शाही शायरी
jati rahin kidhar wo mohabbat ki baniyan

ग़ज़ल

जाती रहीं किधर वो मोहब्बत की बानियाँ

वली उज़लत

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जाती रहीं किधर वो मोहब्बत की बानियाँ
इक आश्ना रहीं तिरी बातें बगानियाँ

सुन कर जला हूँ तूर सा मूसा कमर मियाँ
फ़िरऔनी-ए-रक़ीब ओ तिरी लन-तरानियाँ

कहता हूँ जब मैं सोते नसीबों की सरगुज़िश्त
होती हैं ख़्वाब-ए-नाज़ की तुम को कहानियाँ

जाम-ए-हुबाब पर दम-ए-ईसा भी संग है
नाज़ुक दिलों पे हल्के सुख़न हैं गिरानियाँ

ऐ जग के ठग ये नाम निकाले से नंग नहीं
'उज़लत' से दिल लिए पे भी आँखें चोरानियाँ