जाती है धूप उजले परों को समेट के
ज़ख़्मों को अब गिनूँगा मैं बिस्तर पे लेट के
मैं हाथ की लकीरें मिटाने पे हूँ ब-ज़िद
गो जानता हूँ नक़्श नहीं ये सलेट के
दुनिया को कुछ ख़बर नहीं क्या हादिसा हुआ
फेंका था उस ने संग गुलों में लपेट के
फ़व्वारे की तरह न उगल दे हर एक बात
कम कम वो बोलते हैं जो गहरे हैं पेट के
इक नुक़रई खनक के सिवा क्या मिला 'शकेब'
टुकड़े ये मुझ से कहते हैं टूटी प्लेट के

ग़ज़ल
जाती है धूप उजले परों को समेट के
शकेब जलाली