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जाती है धूप उजले परों को समेट के | शाही शायरी
jati hai dhup ujle paron ko sameT ke

ग़ज़ल

जाती है धूप उजले परों को समेट के

शकेब जलाली

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जाती है धूप उजले परों को समेट के
ज़ख़्मों को अब गिनूँगा मैं बिस्तर पे लेट के

मैं हाथ की लकीरें मिटाने पे हूँ ब-ज़िद
गो जानता हूँ नक़्श नहीं ये सलेट के

दुनिया को कुछ ख़बर नहीं क्या हादिसा हुआ
फेंका था उस ने संग गुलों में लपेट के

फ़व्वारे की तरह न उगल दे हर एक बात
कम कम वो बोलते हैं जो गहरे हैं पेट के

इक नुक़रई खनक के सिवा क्या मिला 'शकेब'
टुकड़े ये मुझ से कहते हैं टूटी प्लेट के