जानता हूँ अब यूँही बरबाद रक्खेगा मुझे
वो भी लेकिन इस बहाने याद रक्खेगा मुझे
ख़ुद मिरी वारफ़्तगी ने दूर उसे मुझ से किया
ये ख़याल अब उम्र भर नाशाद रक्खेगा मुझे
हाल से मेरे रहेगा बे-ख़बर भी अब वही
जो कि महव-ए-वहशत ओ उफ़्ताद रक्खेगा मुझे
मेहरबाँ जब हो तो करता है असीरी का सवाल
वो ख़फ़ा है जब तलक आज़ाद रक्खेगा मुझे
ख़ुद से भी पहले रखा था मुझ को जिस ने कल तलक
लग रहा है अब वो सब के बा'द रक्खेगा मुझे
ग़ज़ल
जानता हूँ अब यूँही बरबाद रक्खेगा मुझे
मुबीन मिर्ज़ा