EN اردو
जानिब-ए-दश्त कभी तुम भी निकल कर देखो | शाही शायरी
jaanib-e-dasht kabhi tum bhi nikal kar dekho

ग़ज़ल

जानिब-ए-दश्त कभी तुम भी निकल कर देखो

नासिर ज़ैदी

;

जानिब-ए-दश्त कभी तुम भी निकल कर देखो
दोस्तो आबला-पाई का अमल कर देखो

मेरी आशुफ़्ता-सरी पर न हँसो ऐ लोगो
इश्क़ की आग में ख़ुद भी ज़रा जल कर देखो

तुम जो चाहो तो मिरे दिल को सुकूँ मिल जाए
अपना अंदाज़-ए-नज़र कुछ तो बदल कर देखो

मैं तुम्हें जीने के अंदाज़ सिखा सकता हूँ
एक दो गाम मेरे साथ तो चल कर देखो

चाँदनी-रातों में फिरता है कोई आवारा
तुम को फ़ुर्सत जो मिले घर से निकल कर देखो

फ़ासले बरसों के पल-भर में सिमट आएँगे
आज की शब मिरे पहलू में मचल कर देखो

उस का चेहरा है किसी दश्त का सूरज 'नासिर'
उस की जानिब कभी देखो तो सँभल कर देखो