जाने ये कैसा ज़हर दिलों में उतर गया
परछाईं ज़िंदा रह गई इंसान मर गया
बर्बादियाँ तो मेरा मुक़द्दर ही थीं मगर
चेहरों से दोस्तों के मुलम्मा उतर गया
ऐ दोपहर की धूप बता क्या जवाब दूँ
दीवार पूछती है कि साया किधर गया
इस शहर में फ़राश-तलब है हर एक राह
वो ख़ुश-नसीब था जो सलीक़े से मर गया
क्या क्या न उस को ज़ोम-ए-मसीहाई था 'उमीद'
हम ने दिखाए ज़ख़्म तो चेहरा उतर गया
ग़ज़ल
जाने ये कैसा ज़हर दिलों में उतर गया
उम्मीद फ़ाज़ली