जाने क़लम की आँख में किस का ज़ुहूर था
कल रात मेरे गीत के मुखड़े पे नूर था
नग़्मा सा छेड़ती थीं तजल्ली की उँगलियाँ
तौरेत का नुज़ूल ब-लहन-ए-ज़बूर था
वो साथ साथ और पहुँचना था उस तलक
हर आन एक मरहला नज़दीक ओ दूर था
हैबत के बाम पर थी बुलावे की रौशनी
थी वसवसों की शाम प जाना ज़रूर था
हर पेच कोई वाक़िआ हर मोड़ कोई याद
उस के बदन के साथ मिरा ला-शुऊर था
इक भीड़ मुझ से मुंतज़िर-ए-इंकिशाफ़ थी
मैं था मुराक़बे में मगर बे-हुज़ूर था
ग़ज़ल
जाने क़लम की आँख में किस का ज़ुहूर था
अब्दुल अहद साज़