जाने क्या ऐसा उसे मुझ में नज़र आया था
मुझ से मिलने वो बुलंदी से उतर आया था
कोई तो गर्मी-ए-हसास से मिलता उस से
इतने दिन बा'द तो वो लौट के घर आया था
वो मिरे पाँव का चक्कर था कि मंज़िल थी मिरी
घूम-फिर कर वही हर बार खंडर आया था
वो मिरे साथ था सहरा हो कि दरिया 'फ़र्रुख़'
उस के होते हुए क्या लुत्फ़-ए-सफ़र आया था
ग़ज़ल
जाने क्या ऐसा उसे मुझ में नज़र आया था
फ़र्रुख़ जाफ़री