जाने क्या आसेब था पत्थर आते थे
रात गए कुछ साए छत पर आते थे
सुब्ह वो क्यारी फूलों से भर जाती थी
तुम जिस की बेलों में छुप कर आते थे
मैं जिस रस्ते पर निकली उस रस्ते में
सहराओं के बीच समुंदर आते थे
चाँद की धीमी धीमी चाप उभरते ही
सारे सपने फूल पहन कर आते थे
इस से मेरी रूह में उतरा ही न गया
रस्ते में दो गहरे सागर आते थे
ख़्वाबों के याक़ूत से पोरें ज़ख़्मी हैं
रास मुझे कब ऐसे ज़ेवर आते थे

ग़ज़ल
जाने क्या आसेब था पत्थर आते थे
इशरत आफ़रीं