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जाने किस सम्त से हवा आई | शाही शायरी
jaane kis samt se hawa aai

ग़ज़ल

जाने किस सम्त से हवा आई

शहज़ाद अहमद

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जाने किस सम्त से हवा आई
बार बार अपनी ही सदा आई

हुस्न भी हेच सामने जिस के
मेरे हिस्से में वो बला आई

मुझे सज्दे किए फ़रिश्तों ने
काम मेरे मिरी ख़ता आई

कैसे बरसी घटा समुंदर पर
अपनी आँखें कहाँ गँवा आई

जागने का सवाल ही न रहा
आज की रात नींद क्या आई

पलट आई उमीद उस दर से
मिरी ही आबरू गँवा आई

सब्र ही कर लिया तो फिर 'शहज़ाद'
मेरे होंटों पे क्यूँ दुआ आई