जाने किस सानिहा-ए-दर्द के ग़म्माज़ रहे
अहद-दर-अहद बिखरती हुई आवाज़ रहे
गुम हुई जाती है तारीक ख़लाओं में नज़र
इस घड़ी मेरे सिरहाने मिरा दम-साज़ रहे
अपनी पहचान ही खो बैठे हैं रफ़्ता रफ़्ता
अपने ही आप से कितने नज़र-अंदाज़ रहे
ना-रसाई का ये दुख भी तो मुकम्मल न हुआ
हम तिरे रब्त में आग़ाज़ ही आग़ाज़ रहे
आ के वापस न गया कोई हवा का झोंका
टूटते लम्हों में एहसास के दर बाज़ रहे

ग़ज़ल
जाने किस सानिहा-ए-दर्द के ग़म्माज़ रहे
लुत्फ़ुर्रहमान