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जाने कैसा ये नूर है मुझ में | शाही शायरी
jaane kaisa ye nur hai mujh mein

ग़ज़ल

जाने कैसा ये नूर है मुझ में

अहमद कमाल हशमी

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जाने कैसा ये नूर है मुझ में
चाँद कोई ज़रूर है मुझ में

कोई पढ़ता नहीं कभी उस को
वो जो बैनस्सुतूर है मुझ में

जाने किस में है आजिज़ी मेरी
जाने किस का ग़ुरूर है मुझ में

कहीं बाहर नज़र नहीं आता
मेरा दुश्मन ज़रूर है मुझ में

किर्चियाँ चुभ रही हैं सीने में
आइना चूर चूर है मुझ में

मुद्दतों तक सफ़र में रह कर भी
कोई मंज़िल से दूर है मुझ में

मुंतज़िर है किसी तजल्ली का
एक जो कोह-ए-तूर है मुझ में

मैं ये महसूस कर रहा हूँ 'कमाल'
कोई मुझ से ही दूर है मुझ में