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जाने इन आँखों ने उस दश्त में देखा क्या क्या | शाही शायरी
jaane in aankhon ne us dasht mein dekha kya kya

ग़ज़ल

जाने इन आँखों ने उस दश्त में देखा क्या क्या

अबुल हसनात हक़्क़ी

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जाने इन आँखों ने उस दश्त में देखा क्या क्या
मेरे सीने में कोई शोर उठा था क्या क्या

आज तक पर्दा-ए-ता'बीर से बाहर न मिला
और होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा क्या क्या

शबनम-आसार भला चैन से बैठा कब हूँ
ख़ुद को फैलाता रहा आँख में सहरा क्या क्या

हाँ वही रंग जो तरतीब न पाया मुझ में
अपनी आँखों में वो करता रहा गहरा क्या क्या

ख़ूब होते ही रहे सब ख़ुश-ओ-ना-ख़ुश मुझ में
मुझ से शर्मिंदा रहा ज़ख़्म-ओ-मुदावा क्या क्या

हाथ पैरों में किसी शौक़ की हलचल थी बहुत
देखता ही रहा मैं जानिब-ए-सहरा क्या क्या

उस की बे-मेहरी का शिकवा नहीं होगा मुझ से
मैं भी रखता था कभी दिल में इरादा क्या क्या

दूर रहता है मगर जुम्बिश-ए-लब बोस-ओ-कनार
डूबता रहता है दरिया में किनारा क्या क्या