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जानाँ गए दिनों का तअ'ल्लुक़ बहाल कर | शाही शायरी
jaanan gae dinon ka talluq bahaal kar

ग़ज़ल

जानाँ गए दिनों का तअ'ल्लुक़ बहाल कर

मोहसिन असरार

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जानाँ गए दिनों का तअ'ल्लुक़ बहाल कर
आईना बन गया हूँ मिरी देख-भाल कर

अपनी ही रहगुज़र के बुझाता है क्यूँ चराग़
हर रास्ते से मेरा गुज़रना मुहाल कर

इक रोज़ ऐसा हो कि चराग़ों के रू-ब-रू
कुछ में हुनर करूँ कोई तू भी कमाल कर

तहवील-ए-इंतिज़ार में कब तक रहेगी आँख
मेरे सुपुर्द मेरी नज़र का मआ'ल कर

डर है कहीं मैं दश्त की जानिब निकल न जाऊँ
बैठा हूँ अपने पाँव में ज़ंजीर डाल कर

'मोहसिन' बुरे दिनों में नया दोस्त कौन हो
है जिस का पहला क़र्ज़ उसी से सवाल कर