जान ये कह के बुत-ए-होश-रुबा ने ले ली
कोई पूछे तो ये कहना कि ख़ुदा ने ले ली
गुल-ए-मक़्सूद में अव्वल तो महक थी ही नहीं
और जो थी भी वो हसरत की हवा ने ले ली
सब से पहले तो सियाही मिरी क़िस्मत को मिली
जो बची थी वो तिरी ज़ुल्फ़-ए-दोता ने ले ली
जान कम्बख़्त मोहब्बत में बचाए न बची
बुत-ए-काफ़िर से जो छूटी तो ख़ुदा ने ले ली
दम-ए-आख़िर बुत-ए-बेदर्द का दामन छूटा
मेरे हाथों से बड़ी चीज़ ख़ुदा ने ले ली
चल बसी जान तो इस बात का ग़म क्या 'मुज़्तर'
इक अमानत थी ख़ुदा की सो ख़ुदा ने ले ली
ग़ज़ल
जान ये कह के बुत-ए-होश-रुबा ने ले ली
मुज़्तर ख़ैराबादी