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जान नज़्र-ए-शबाब हो के रही | शाही शायरी
jaan nazr-e-shabab ho ke rahi

ग़ज़ल

जान नज़्र-ए-शबाब हो के रही

अज़ीज़ वारसी

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जान नज़्र-ए-शबाब हो के रही
ज़िंदगी कामयाब हो के रही

मेरी जानिब जो उठ गई थी कभी
वो नज़र ला-जवाब हो के रही

इश्क़ में राह-ए-रास्त भी अक्सर
राह-ए-पुर-पेच-ओ-ताब हो के रही

बा'द तौबा के और भी साक़ी
मेरी हालत ख़राब हो के रही

उन की महफ़िल में बे-कसी मेरी
बाइ'स-ए-इंक़लाब हो के रही

फ़स्ल-ए-गुल में मज़े उड़ाएँगे
ये तमन्ना भी ख़्वाब हो के रही

दहर में ऐ 'अज़ीज़' अपनी वफ़ा
आप अपना जवाब हो के रही