जान मुक़द्दर में थी जान से प्यारा न था
मेरे लिए सुब्ह थी सुब्ह का तारा न था
बहर-ए-शब-ओ-रोज़ में बह गए तिनके से हम
मौज-ए-बला-ख़ेज़ थी और किनारा न था
जान के दुश्मन थे सब लोग तिरे शहर के
उम्र कटी जिस जगह पल भी गुज़ारा न था
सर्द रही उम्र भर अंजुमन-ए-आरज़ू
ख़ार-ओ-ख़स-ए-शौक़ में कोई शरारा न था
किस के लिए जागते किस की तरफ़ भागते
इतने बड़े शहर में कोई हमारा न था
शौक़-ए-सफ़र बे-सबब और सफ़र बे-तलब
उस की तरफ़ चल दिए जिस ने पुकारा न था
दूर सही मंज़िलें अब न रहीं हिम्मतें
टूट गए पा-ए-शौक़ दिल अभी हारा न था
ग़ज़ल
जान मुक़द्दर में थी जान से प्यारा न था
शहज़ाद अहमद