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जाँ के ज़ियाँ को ग़म की तलाफ़ी समझ लिया | शाही शायरी
jaan ke ziyan ko gham ki talafi samajh liya

ग़ज़ल

जाँ के ज़ियाँ को ग़म की तलाफ़ी समझ लिया

शकील जाज़िब

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जाँ के ज़ियाँ को ग़म की तलाफ़ी समझ लिया
कम-हौसलों ने मौत को शाफ़ी समझ लिया

जो गुफ़्तुगू में सब से ज़रूरी था वो सुख़न
उन की समाअतों ने इज़ाफ़ी समझ लिया

इक शर्त-ए-जुस्तुजू भी थी मंज़िल के वास्ते
हम ने बस आरज़ू को ही काफ़ी समझ लिया

ख़ुद्दारी-ए-जुनूँ में इन आँखों ने तेरे ब'अद
अश्कों को भी वफ़ा के मुनाफ़ी समझ लिया

'जाज़िब' न जाने कौन सी दुनिया का शख़्स था
जिस ने सज़ाओं को भी मुआफ़ी समझ लिया