जान आ बर में कि फिर कुछ ग़म-ओ-वसवास नहीं
तू नहीं पास तो फिर कुछ भी मिरे पास नहीं
तू जिलावे तो जियूँ तू ही जो मारे तो मरूँ
तुझ सिवा मुझ को तो दारैन में कुछ आस नहीं
नाम लेने से तिरा मैं हूँ मोअत्तर होता
गुल-ए-जन्नत में भी सुनते हैं कि ये बास नहीं
यारो है 'अज़फ़री' उर्दू की ज़बाँ का वारिस
अहल-ए-देहली है वो बाशिंदा-ए-मद्रास नहीं
ग़ज़ल
जान आ बर में कि फिर कुछ ग़म-ओ-वसवास नहीं
मिर्ज़ा अज़फ़री