जाम-ए-तही क़ुबूल न था ग़म समो लिए
फूलों के इंतिज़ार में काँटे चुभो लिए
महरूमी-ए-दवाम भी क्या लुत्फ़ दे गई
ये सोच कर हँसे हैं कि इक उम्र रो लिए
हम हैं वो सादा-लौह कि पा कर रज़ा-ए-दोस्त
ख़ुद अपने हाथ अपने ही ख़ूँ में डुबो लिए
जिस सम्त से भी बाँग-ए-जरस आई दश्त में
दीवांगान-ए-शौक़ उसी सम्त हो लिए
पिछ्ला पहर है शब का कि है शाम का समाँ
वो क्या बता सकेंगे जो इक नींद सो लिए
क्या जब्र है सबूत-ए-वफ़ा पेश कीजिए
और उन का नाम आए तो फिर लब न खोलिए
'मोहसिन' ज़बान दीजिए बज़्म-ए-ख़मोश को
मोहमल है आज लफ़्ज़-ए-सुख़न कुछ तो बोलिए

ग़ज़ल
जाम-ए-तही क़ुबूल न था ग़म समो लिए
मोहसिन भोपाली