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जाम दे और न कर वक़्त पे तकरार कि बस | शाही शायरी
jam de aur na kar waqt pe takrar ki bas

ग़ज़ल

जाम दे और न कर वक़्त पे तकरार कि बस

मारूफ़ देहलवी

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जाम दे और न कर वक़्त पे तकरार कि बस
साक़िया अब्र उठा है ये धुआँ-धार कि बस

क्या तमाशा है जो कल रात वो लाए तशरीफ़
बे-ख़ुदी ने ये लिया आन के यकबार कि बस

क्यूँ न दिल ऐसे को दूँ मैं ने कल उन से जो कहा
दर्द होता है मिरे दिल में ये ऐ यार कि बस

सुनते ही हो कि हम आग़ोश कहा हँस के तुझे
दर्द-ए-दिल की है दवा और भी दरकार कि बस

रश्क से क्यूँ न जले मेहर-ए-दरख़्शाँ 'मारूफ़'
है मिरे यार की ये गर्मी-ए-बाज़ार कि बस