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जागते ही नज़र अख़बार में खो जाती है | शाही शायरी
jagte hi nazar aKHbar mein kho jati hai

ग़ज़ल

जागते ही नज़र अख़बार में खो जाती है

अता आबिदी

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जागते ही नज़र अख़बार में खो जाती है
ज़िंदगी दर्द के अम्बार में खो जाती है

ना-ख़ुदा अक़्ल के पतवार उठाता है कि जब
कश्ती-ए-दिल मिरी मंजधार में खो जाती है

बे-सबब सोचने वाले कभी सोचा तू ने
आगही कसरत-ए-अफ़्कार में खो जाती है

उड़ते रहते हैं ख़यालात के जुगनू फिर भी
बात क्यूँ पर्दा-ए-इज़हार में खो जाती है

उस के कामों का है रंगीन ख़ुशामद पे मदार
और मेहनत मिरी ईसार में खो जाती है

हुर्मत-ए-पर्दा ज़रूरी है 'अता-जी' वर्ना
चीज़ जैसी भी हो बाज़ार में खो जाती है