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जागते दिन की गली में रात आँखें मल रही है | शाही शायरी
jagte din ki gali mein raat aankhen mal rahi hai

ग़ज़ल

जागते दिन की गली में रात आँखें मल रही है

सिदरा सहर इमरान

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जागते दिन की गली में रात आँखें मल रही है
वक़्त गुज़रा जा रहा है धूप छत से टल रही है

इक लिबास-ए-फ़ाख़िरा है सुर्ख़ ग़र्क़ाबी महल है
कुछ पुरानी हो गई है पर कहानी चल रही है

इक सितारा साज़ आँखों के किनारे बस रहा है
इक मोहब्बत नाम की लड़की बदन में पल रही है

पास था खोया नहीं है जो न था अब भी नहीं है
उम्र भर फिर क्यूँ तबीअत मुज़्तरिब बे-कल रही है

आना जाना साँस का क्या वस्ल से मशरूत है
तू चले तो थम रही है तू रुके तो चल रही है

ज़र्द-रू वहशत-ज़दा भटकी हुई वीरान सी
ज़िंदगी इक शाम है और शाम बन में ढल रही है