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जागे ज़मीर ज़ेहन खुले ताज़गी मिले | शाही शायरी
jage zamir zehn khule tazgi mile

ग़ज़ल

जागे ज़मीर ज़ेहन खुले ताज़गी मिले

याक़ूब राही

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जागे ज़मीर ज़ेहन खुले ताज़गी मिले
छूटे गहन कि मुझ को मिरी रौशनी मिले

क्यूँ ज़ब्त-ओ-एहतियात में गुज़रे तमाम उम्र
इस मुंतशिर दिमाग़ को बस बरहमी मिले

हर अजनबी से शहर में ढूँडो ख़ुलूस-ए-दिल
हर आश्ना-ए-शहर से बेगानगी मिले

जोहला-ए-ब-ज़बान बनें रहबरना-ए-क़ौम
उलमा-ए-ख़ुश-कलाम को बस गुम-रही मिले

ऐ जज़्बा-ए-सुपुर्दगी ख़ुद को ज़रा सँभाल
ऐसा न हो तुझे भी वही बे-रुख़ी मिले