जादा-ए-मय पे गुज़र ख़्वाबों का
मुड़ गया सैल किधर ख़्वाबों का
ज़िंदगी अज़्मत-ए-हाज़िर के बग़ैर
इक तसलसुल है मगर ख़्वाबों का
ज़ुल्मतें वहशत-ए-फ़र्दा से निढाल
ढूँढती फिरती हैं घर ख़्वाबों का
क़र्या-ए-माह से उस बस्ती तक
रोज़ होता है गुज़र ख़्वाबों का
सुब्ह-ए-नौरोज़ भी दिलकश है 'उरूज'
इस क़दर रंज न कर ख़्वाबों का
ग़ज़ल
जादा-ए-मय पे गुज़र ख़्वाबों का
अब्दुर रऊफ़ उरूज