जा न तू हसरत-ए-दीदार अभी बाक़ी है
इक रमक़ मुझ में दम-ए-यार अभी बाक़ी है
क्यूँ न देखूँ उन्हें नज़रों से ख़रीदार की मैं
हुस्न की गर्मी-ए-बाज़ार अभी बाक़ी है
सब हुए हसरत-ओ-अरमाँ तो शब-ए-ग़म में शहीद
रह गया इक ये गुनहगार अभी बाक़ी है
मिल के भी मुझ से खटकते रहे हर बात पे वो
ख़ार निकला ख़लिश-ए-ख़ार अभी बाक़ी है
उठ के 'तनवीर' के पहलू से न जाना घर को
दोपहर रात सितमगार अभी बाक़ी है

ग़ज़ल
जा न तू हसरत-ए-दीदार अभी बाक़ी है
तनवीर देहलवी