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इज़्तिराब-ए-ख़ाक-ए-अमजद में कहीं रहता है वो | शाही शायरी
iztirab-e-KHak-e-amjad mein kahin rahta hai wo

ग़ज़ल

इज़्तिराब-ए-ख़ाक-ए-अमजद में कहीं रहता है वो

मोहम्मद अजमल नियाज़ी

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इज़्तिराब-ए-ख़ाक-ए-अमजद में कहीं रहता है वो
काएनात-ए-रूह-ए-अहमद में कहीं रहता है वो

दायरा-दर-दायरा सदियाँ बुलाती हैं उसे
सच्ची आवाज़ों के गुम्बद में कहीं रहता है वो

ढूँडने निकले हैं जिस को इल्म के सहरा में हम
दर्द-ओ-ग़म की राह-ए-अबजद में कहीं रहता है वो

याद आता है मुसीबत मैं दुआओं की तरह
शहर के वीरान मा'बद में कहीं रहता है वो

मुंतज़िर है ज़र्रे ज़र्रे की निगाहों में लहू
सुर्ख़-रू होने की सरहद में कहीं रहता है वो

मुन्कशिफ़ होती हुई हैरत में उस को देखिए
इक निगाह-ए-ख़्वाब की ज़द में कहीं रहता है वो

इक इरादे की तरह 'अजमल' दिलों के दरमियाँ
अर्ज़-ए-जाँ की आख़िरी हद में कहीं रहता है वो