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इज़हार-ए-हाल सुन के हमारा कभी कभी | शाही शायरी
izhaar-e-haal sun ke hamara kabhi kabhi

ग़ज़ल

इज़हार-ए-हाल सुन के हमारा कभी कभी

नवाब मोअज़्ज़म जाह शजीअ

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इज़हार-ए-हाल सुन के हमारा कभी कभी
वो भी हुए हैं अंजुमन-आरा कभी कभी

मैं और अर्ज़-ए-शौक़ मिरी क्या मजाल है
होता है उस तरफ़ से इशारा कभी कभी

राह-ए-तलब में और कोई रहनुमा नहीं
देती हैं लग़्ज़िशें ही सहारा कभी कभी

सुनता हूँ मुझ से छुट के नहीं वो भी मुतमइन
नज़रों को ढूँढता है नज़ारा कभी कभी

आया शब-ए-फ़िराक़ वो हंगाम-ए-बे-कसी
ख़ुद अपना नाम ले के पुकारा कभी कभी

सच है कि राहतें ही नहीं हुस्न-ए-ज़िंदगी
ग़म ने भी ज़िंदगी को सँवारा कभी कभी

यूँ तय हुए 'शजीअ' मोहब्बत के रास्ते
बढ़ बढ़ के मंज़िलों ने पुकारा कभी कभी