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इतनी क़ुर्बत भी नहीं ठीक है अब यार के साथ | शाही शायरी
itni qurbat bhi nahin Thik hai ab yar ke sath

ग़ज़ल

इतनी क़ुर्बत भी नहीं ठीक है अब यार के साथ

सलीम सिद्दीक़ी

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इतनी क़ुर्बत भी नहीं ठीक है अब यार के साथ
ज़ख़्म खा जाओगे खेलोगे जो तलवार के साथ

एक आहट भी मिरे घर से उभरती है अगर
लोग कान अपने लगा लेते हैं दीवार के साथ

पाँव साकित हैं मगर घूम रही है दुनिया
ज़िंदगी ठहरी हुई लगती है रफ़्तार के साथ

एक जलता हुआ आँसू मिरी आँखों से गिरा
बेड़ियाँ टूट गईं ज़ुल्म की झंकार के साथ

कल भी अनमोल था मैं आज भी अनमोल हूँ मैं
घटती बढ़ती नहीं क़ीमत मिरी बाज़ार के साथ

कज-कुलाही पे न मग़रूर हुआ कर इतना
सर उतर आते हैं शाहों के भी दस्तार के साथ

कौन सा जुर्म ख़ुदा जाने हुआ है साबित
मशवरे करता है मुंसिफ़ जो गुनहगार के साथ

शहर भर को मैं मयस्सर हूँ सिवाए उस के
जिस की दीवार लगी है मिरी दीवार के साथ