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इतनी क़ीमत-ए-शाम-ए-सफ़र दूँ ये नहीं होगा | शाही शायरी
itni qimat-e-sham-e-safar dun ye nahin hoga

ग़ज़ल

इतनी क़ीमत-ए-शाम-ए-सफ़र दूँ ये नहीं होगा

महशर बदायुनी

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इतनी क़ीमत-ए-शाम-ए-सफ़र दूँ ये नहीं होगा
अपने चराग़ को ख़ुद गुल कर दूँ ये नहीं होगा

अब तो मेरी कुल तौक़ीर शजर है आधा
बर्क़ को ये आधा भी शजर दूँ ये नहीं होगा

हिज्र को पस-अंदाज़ा किया है मौसम मौसम
उम्र की मेहनत ग़ारत कर दूँ ये नहीं होगा

जाऊँ जो उस के दर पर दामन-ए-जाँ फैलाए
वो पत्थर दे और मैं सर दूँ ये नहीं होगा

सच की धुन में चाहे साँसें ही रुक जाएँ
साज़ को झूटे सोज़ से भर दूँ ये नहीं होगा

कम-ज़ौ लफ़्ज़ को सूरत भी दूँ मिट्टी भी दूँ
ख़ुद-रौ लफ़्ज़ को ज़ेर-ओ-ज़बर दूँ ये नहीं होगा

मंतिक़-ए-असर सलीक़ा-ए-हर्फ़-ए-हक़ क्या जाने
वहशी के क़ब्ज़े में तबर दूँ ये नहीं होगा

मेरी एक इक शाख़ है फ़ज़ल--ओ-अदल की मीज़ाँ
छाँव उधर दूँ धूप इधर दूँ ये नहीं होगा