इतनी फ़ुर्सत नहीं उस पैकर-ए-पिंदार के पास
बन के आए वो मसीहा किसी बीमार के पास
गर यूँही वहशतें रक़्साँ रहीं दालानों में
कोई साया न रहेगा किसी दीवार के पास
रोज़ आँखों को नया तर्ज़-ए-सुख़न मिलता है
रोज़ जाता हूँ किसी यार-ए-तरह-दार के पास
फ़स्ल-ए-ग़म देख के नम-दीदा हुआ चर्ख़-ए-फ़लक
शायद आँखें ही नहीं आइना-बरदार के पास
मेरी दीवानगी ख़्वाबों से बग़ल-गीर हुई
दश्त आबाद किया जब किसी गुलज़ार के पास
रंग-ओ-निकहत के ख़ज़ाने भी ज़मीं-बोस हुए
चल के ख़ुद आने लगी ख़ुश्बू ख़रीदार के पास
ऐ 'ख़याल' अपने इरादों को तवाना रक्खो
मुफ़्लिसी आती नहीं है किसी फ़नकार के पास

ग़ज़ल
इतनी फ़ुर्सत नहीं उस पैकर-ए-पिंदार के पास
रफ़ीक़ ख़याल