इतने नज़दीक से आईने को देखा न करो
रुख़-ए-ज़ेबा की लताफ़त को बढ़ाया न करो
दर्द ओ आज़ार का तुम मेरे मुदावा न करो
रहने दो अपनी मसीहाई का दावा न करो
हुस्न के सामने इज़हार-ए-तमन्ना न करो
इश्क़ इक राज़ है इस राज़ को इफ़्शा न करो
अपनी महफ़िल में मुझे ग़ौर से देखा न करो
मैं तमाशा हूँ मगर तुम तो तमाशा न करो
सारी दुनिया तुम्हें कह देगी तुम्हीं हो क़ातिल
देखो मुझ को ग़लत अंदाज़ से देखा न करो
कैसे मुमकिन है कि हम दोनों बिछड़ जाएँगे
इतनी गहराई से हर बात को सोचा न करो
तुम पे इल्ज़ाम न आ जाए सफ़र में कोई
रास्ता कितना ही दुश्वार हो ठहरा न करो
वो कोई शाख़ हो मिज़राब हो या दिल हो 'अज़ीज़'
टूटने वाली किसी शय का भरोसा न करो
ग़ज़ल
इतने नज़दीक से आईने को देखा न करो
अज़ीज़ वारसी