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इतना यक़ीन रख कि गुमाँ बाक़ी रहे | शाही शायरी
itna yaqin rakh ki guman baqi rahe

ग़ज़ल

इतना यक़ीन रख कि गुमाँ बाक़ी रहे

अब्दुल्लाह कमाल

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इतना यक़ीन रख कि गुमाँ बाक़ी रहे
एक ज़रा कार-ए-जहाँ बाक़ी रहे

बाक़ी रहे यादों की इक क़ौस-ए-क़ुज़ह
यानी मिरी जा-ए-अमाँ बाक़ी रहे

शोरिश-ए-ख़ूँ रक़्स-ए-जुनूँ ख़त्म न हो
क़हक़हा-ए-हम-नफ़्साँ बाक़ी रहे

आता रहे यूँ ही सदा मौसम-ए-गुल
सिलसिला-ए-दिल-ज़दगाँ बाक़ी रहे

क़ाफ़िला-ए-ग़म गुज़राँ की भी सुना
हौसला-ए-हम-सफ़राँ बाक़ी रहे

क़ैद-ए-क़फ़स शोर-ए-नफ़स किस के लिए
किस के लिए रिश्ता-ए-जाँ बाक़ी रहे

आँखों से छिन जाएँ इक इक ख़्वाब मगर
उस की तलब दिल का धुआँ बाक़ी रहे