इतना सन्नाटा है बस्ती में कि डर जाएगा
चाँद निकला भी तो चुप-चाप गुज़र जाएगा
क्या ख़बर थी कि हवा तेज़ चलेगी इतनी
सारा सहरा मिरे चेहरे पे बिखर जाएगा
हम किसी मोड़ पे रुक जाएँगे चलते चलते
रास्ता टूटे हुए पुल पे ठहर जाएगा
बादबानों ने जो एहसान जताया उस पर
बीच दरिया में वो कश्ती से उतर जाएगा
चलते रहिए कि सफ़-ए-हम-सफ़राँ लम्बी है
जिस को रस्ते में ठहरना है ठहर जाएगा
दर-ओ-दीवार पे सदियों की कोहर छाई है
घर में सूरज भी जो आया तो ठिठर जाएगा
फ़न वो जुगनू है जो उड़ता है हवा में 'क़ैसर'
बंद कर लोगे जो मुट्ठी में तो मर जाएगा
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ग़ज़ल
इतना सन्नाटा है बस्ती में कि डर जाएगा
क़ैसर-उल जाफ़री