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इतना भी नहीं करते इंकार चले आओ | शाही शायरी
itna bhi nahin karte inkar chale aao

ग़ज़ल

इतना भी नहीं करते इंकार चले आओ

अख़गर मुशताक़ रहीमाबादी

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इतना भी नहीं करते इंकार चले आओ
सौ बार बुलाया है इक बार चले आओ

हों फ़ासले नक़्शों के या फ़र्क़ हों शहरों के
दिल से तो नहीं दूरी सरकार चले आओ

इक मुंतज़िर-ए-वादा बेदार तो है कब से
हो जाए मुक़द्दर भी बेदार चले आओ

अंदेशा-ए-रुस्वाई क्यूँ राह में हाइल हो
कर लेंगे ज़माने को हमवार चले आओ

ता-चंद वही रंजिश लिल्लाह इधर देखो
लो जुर्म का करते हैं इक़रार चले आओ

बे-कैफ़ी-ए-मौसम का ये उज़्र है बे-मा'नी
लग जाएँगे फूलों के अम्बार चले आओ

इस आबला-पाई में ख़ारों की शिकायत क्या
कुछ ख़ार भी हैं आख़िर हक़दार चले आओ

जब चल ही पड़े 'अख़्गर' फिर फ़िक्र कोई कैसी
जिस तरह बने अब तो सरकार चले आओ