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इस्मत का है लिहाज़ न परवा हया की है | शाही शायरी
ismat ka hai lihaz na parwa haya ki hai

ग़ज़ल

इस्मत का है लिहाज़ न परवा हया की है

जलील मानिकपूरी

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इस्मत का है लिहाज़ न परवा हया की है
ये सिन ग़ज़ब का है ये जवानी बला की है

सच पूछिए तो नाला-ए-बुलबुल है बे-ख़ता
फूलों में सारी आग लगाई सबा की है

दिल है अजीब गुल चमन-ए-रोज़गार में
रंगत तो फूल की है मगर बू वफ़ा की है

ख़ल्वत में क्यूँ ये साथ हैं सब को अलग करो
शोख़ी का है न काम न हाजत हया की है

वो हाथ उन के चूमती है मैं हूँ पाएमाल
ये हैं मिरे नसीब वो क़िस्मत हिना की है

अंजाम क्या हो दाग़-ए-मोहब्बत का देखिए
सीने में इब्तिदा से जलन इंतिहा की है

मौसम यही तो पीने-पिलाने का है जलील
मय-ख़्वार बाग़ बाग़ हैं आमद घटा की है