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इसी मामूल-ए-रोज़-ओ-शब में जी का दूसरा होना | शाही शायरी
isi mamul-e-roz-o-shab mein ji ka dusra hona

ग़ज़ल

इसी मामूल-ए-रोज़-ओ-शब में जी का दूसरा होना

सुहैल अहमद ज़ैदी

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इसी मामूल-ए-रोज़-ओ-शब में जी का दूसरा होना
हवादिस के तसलसुल में ज़रा सा कुछ नया होना

हमें तो दिल को बहलाना पड़ा हीले हवाले से
तुम्हें कैसा लगा बस्ती का बे-सौत-ओ-सदा होना

सनम बनते हैं पत्थर जब अलग होते हैं टकरा कर
अजब कार-ए-अबस मिट्टी का मिट्टी से जुदा होना

मगर फिर ज़िंदगी भर बंदगी दुनिया की है वर्ना
किसे अच्छा नहीं लगता है थोड़ा सा ख़ुदा होना

मिटाना नक़्श उस के बाग़ की कोहना फ़सीलों से
हरे पत्तों पे उस के नाम-ए-नामी का लिखा होना