इसी फ़ुतूर में कर्ब-ओ-बला से लिपटे हुए
तमाम उम्र गँवा दी अना से लिपटे हुए
अभी भी मिल न सकी इन की ख़ामुशी को ज़बाँ
ये लोग अब भी हैं सौत-ओ-सदा से लिपटे हुए
हवा के शहर में बस साँस लेने आते हैं
वगर्ना अहल-ए-ज़मीं हैं ख़ला से लिपटे हुए
हर एक सम्त लगा है ख़मोशियों का हुजूम
ये कौन लोग हैं कोह-ए-निदा से लिपटे हुए
हँसी भी आती है इन पर तरस भी आता है
ये नफ़रतों के पुजारी ख़ुदा से लिपटे हुए
हम इब्तिदा ही में पहुँचे थे इंतिहा को कभी
अब इंतिहा में भी हैं इब्तिदा से लिपटे हुए
मैं ज़िंदगी के मसाइल से लड़ना चाहता हूँ
मगर वो हाथ निगार-ए-हिना से लिपटे हुए
वगर्ना ख़त्म न होता गहन कभी 'आज़र'
अँधेरे ख़ौफ़-ज़दा थे ज़िया से लिपटे हुए
ग़ज़ल
इसी फ़ुतूर में कर्ब-ओ-बला से लिपटे हुए
फ़रियाद आज़र