इसी बाइ'स तो दुनिया की मुसीबत ग़म नहीं होती
ये दुनिया ग़म तो देती है शरीक-ए-ग़म नहीं होती
चराग़ों में लहू इंसानियत का जगमगाता है
मगर इंसानियत की चश्म-ए-कम पुर-नम नहीं होती
ख़ुशी महसूस करता हूँ तो दुनिया साथ देती है
मुसीबत में मगर आमादा-ए-मातम नहीं होती
ख़ुशी की शम्अ' तो ऐ दोस्त ज़द में आ भी जाती है
मगर दाग़-ए-जिगर की रौशनी मद्धम नहीं होती
सलीक़ा चाहिए आवाज़ को पहचान लेने का
नवा-ए-शाइ'री हर दम नवा-ए-ग़म नहीं होती
'जलील' उन से बिछड़ कर इक ज़माना हो गया लेकिन
अभी तक मेरे अश्कों की रवानी कम नहीं होती

ग़ज़ल
इसी बाइ'स तो दुनिया की मुसीबत ग़म नहीं होती
जलील इलाहाबादी