इश्क़ वो मश्क है जो लाख छुपाए न छपे
दाग़ हम से भी मोहब्बत के लगाए न छपे
जल्वा-गर जैसे पस-ए-अब्र मह-ए-कामिल हो
रुख़-ए-ज़ेबा वो सितमगर न दिखाए न छपे
हुस्न को होश-रुबा नीम-हिजाबी ने किया
वो कभी साफ़ मिरे सामने आए न छपे
बेवफ़ाई से वो अपनी रहे मुंकिर लेकिन
उन की आँखों में बसे अक्स पराए न छपे
सी लिया चाक-ए-दहन राज़ छुपाने को मगर
अश्क आँखों ने मुसलसल जो बहाए न छुपे
शब-ए-तारीक ने रखा था भरम कितनों का
जब लगी आग उजाला हुआ साए न छुपे
ख़ौफ़-ए-रुस्वाई रहा ख़्वाहिश-ए-क़ुर्बत भी 'हक़ीर'
हम मिला उन से निगाहों को न पाए न छपे

ग़ज़ल
इश्क़ वो मश्क है जो लाख छुपाए न छपे
हक़ीर जहानी