EN اردو
इश्क़ में कोई ज़माँ और न मकाँ होता है | शाही शायरी
ishq mein koi zaman aur na makan hota hai

ग़ज़ल

इश्क़ में कोई ज़माँ और न मकाँ होता है

बिस्मिल सईदी

;

इश्क़ में कोई ज़माँ और न मकाँ होता है
वो दो-आलम से अलग एक जहाँ होता है

किस क़दर उन की तबीअत पे गराँ होता है
जिस फ़साने में वफ़ाओं का बयाँ होता है

शिद्दत-ए-शौक़ का अल्लाह रे फ़ुसूँ उफ़ रे फ़रेब
उन की नफ़रत पे मोहब्बत का गुमाँ होता है

सिर्फ़ इक दिल ही वो मा'बद है वो इक मा'बद-ए-इश्क़
जिस में नाक़ूस हम-आवाज़-ए-अज़ाँ होता है

उन से इस तरह जुदा हो के हम आए हैं कि हाए
आँख से जैसे कोई अश्क रवाँ होता है

हुस्न के हक़ से कोई ओहदा-बर-आ क्या होगा
इश्क़ का हक़ भी अदा हम से कहाँ होता है

अपनी सोज़िश में भी होता है जहन्नुम महसूस
ग़ैर की आग का शो'ला भी धुआँ होता है

सुनने वाले ही पे है मुनहसिर अंदाज़ा-ए-ग़म
वर्ना जो हाल है वो किस से बयाँ होता है

ग़ैर की आग में जलने का मज़ा है कुछ और
वर्ना परवाना भी ख़ुद शो'ला-ब-जाँ होता है

हाए इस इश्क़ में इंसाँ का जवाँ मर जाना
जैसे कम्बख़्त इसी दिन को जवाँ होता है

साथ हर साँस के आता है ज़बाँ पर तिरा नाम
दिल में जो कुछ हो वही विर्द-ए-ज़बाँ होता है

जिस जनाज़े पे बरसती हुई हसरत देखूँ
उस जनाज़े पे मुझे अपना गुमाँ होता है

इश्क़ में हाए तबीअत का वो आलम 'बिस्मिल'
आलम-ए-इश्क़ भी जब दिल पे गराँ होता है