इश्क़ में कान्हा के राधा यूँ ही दीवानी न थी
पर मोहब्बत उस की दुनिया ही ने पहचानी न थी
आज कहती हूँ मैं खुल कर जो नहीं अब तक कहा
तुम से मिल कर मैं ने जाना इश्क़ नादानी न थी
उगते सूरज को ही दुनियाँ झुक के करती है सलाम
बदले तेवर पे ज़रा भी मुझ को हैरानी न थी
यूँ लगे की जाम नज़रों से तिरी उस ने पिया
इस से पहले तो कभी रुत इतनी मस्तानी न थी
किस लिए ग़म मैं करूँ बोलो तो इस पे दोस्तों
थी ख़बर मुझ को जवानी लौट कर आनी न थी
तुझ को चाहा तुझ को पूजा देवताओं की तरह
बेवफ़ाई से मैं लेकिन तेरी अन-जानी न थी
ऐब ही मुझ में सदा तुम को नज़र आए फ़क़त
ख़ूबियों को पर मिरी तुम 'ज्योति' पहचानी न थी
ग़ज़ल
इश्क़ में कान्हा के राधा यूँ ही दीवानी न थी
ज्योती आज़ाद खतरी