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इश्क़ में हर तमन्ना-ए-क़ल्ब-ए-हज़ीं सुर्ख़ आँसू बहाए तो मैं क्या करूँ | शाही शायरी
ishq mein har tamanna-e-qalb-e-hazin surKH aansu bahae to main kya karun

ग़ज़ल

इश्क़ में हर तमन्ना-ए-क़ल्ब-ए-हज़ीं सुर्ख़ आँसू बहाए तो मैं क्या करूँ

तुर्फ़ा क़ुरैशी

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इश्क़ में हर तमन्ना-ए-क़ल्ब-ए-हज़ीं सुर्ख़ आँसू बहाए तो मैं क्या करूँ
ना-उमीदी हमा-वक़्त उम्मीद के हाशियों को मिटाए तो मैं क्या करूँ

उस के रुख़्सार सुब्ह-ए-दरख़्शाँ सही उस की ज़ुल्फ़ों में शाम-ए-ग़रीबाँ सही
धूप और छाँव की तरह वो ख़ुद-निगर सामने मेरे आए तो मैं क्या करूँ

वो अलग मैं अलग वो कहीं हैं कहीं वाक़ई ये तो शायान-ए-उल्फ़त नहीं
वो अदा-आश्ना हुस्न-ए-नाज़-आफ़रीं बे-नियाज़ी दिखाए तो मैं क्या करूँ

है सफ़ीने का मेरे मुहाफ़िज़ ख़ुदा ना-ख़ुदा भी मदद-गार है अब मिरा
ये भी माना कि है अब मुआफ़िक़ हवा दिल ही जब डूब जाए तो मैं क्या करूँ

आह-ए-सोज़ाँ का उल्फ़त में यारा नहीं तुझ पे आँच आए मुतलक़ गवारा नहीं
उड़ के चिंगारियाँ आतिश-ए-वक़्त की तेरा दामन जलाए तो मैं क्या करूँ

कौन सा ग़म है जिस का मुदावा नहीं कौन सा दर्द है जिस का चारा नहीं
इश्क़ को ग़म हो प्यारा तो क्या कीजिए दर्द ही दिल को भाए तो मैं क्या करूँ

काम जो रहनुमा का था मैं ने किया उस की मंज़िल का उस को पता भी दिया
फिर भी 'तुरफ़ा' कोई रहरव-ए-कम-नज़र रास्ता भूल जाए तो मैं क्या करूँ