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इश्क़ में ग़ैरत-ए-जज़्बात ने रोने न दिया | शाही शायरी
ishq mein ghairat-e-jazbaat ne rone na diya

ग़ज़ल

इश्क़ में ग़ैरत-ए-जज़्बात ने रोने न दिया

सुदर्शन फ़ाख़िर

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इश्क़ में ग़ैरत-ए-जज़्बात ने रोने न दिया
वर्ना क्या बात थी किस बात ने रोने न दिया

in love I could not weep fearing loss of dignity
else for my not crying what reason could there be

आप कहते थे कि रोने से न बदलेंगे नसीब
उम्र भर आप की इस बात ने रोने न दिया

you had said that weeping would alter no one's fate
coz of this advice of yours I couldn't cry to date

रोने वालों से कहो उन का भी रोना रो लें
जिन को मजबूरी-ए-हालात ने रोने न दिया

tell those who wish to grieve for them I will lament
whom cruel compulsions from crying did prevent

तुझ से मिल कर हमें रोना था बहुत रोना था
तंगी-ए-वक़्त-ए-मुलाक़ात ने रोने न दिया

on meeting you I wanted to cry and cry and cry
but due to lack of time this urge I couldn't satisfy

एक दो रोज़ का सदमा हो तो रो लें 'फ़ाकिर'
हम को हर रोज़ के सदमात ने रोने न दिया

if it were but for a day or two I would have cried
but due to daily suffering this too was thus denied