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इश्क़ में दिल-लगी सी रहती है | शाही शायरी
ishq mein dil-lagi si rahti hai

ग़ज़ल

इश्क़ में दिल-लगी सी रहती है

रियाज़ ख़ैराबादी

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इश्क़ में दिल-लगी सी रहती है
ग़म भी हो तो ख़ुशी सी रहती है

दिल में कुछ गुदगुदी सी रहती है
मुँह पर उन के हँसी सी रहती है

ये हुआ है ख़ुदा ख़ुदा कर के
रात-दिन बे-ख़ुदी सी रहती है

हश्र के दिन भी कुछ गुनह कर लूँ
मासियत में कमी सी रहती है

सदक़े मैं अपने ग़ुंचा-दिल के
ये कली कुछ खिली सी रहती है

इतनी पी है कि बा'द-ए-तौबा भी
बे-पिए बे-ख़ुदी सी रहती है

ऐश भी हो तो लुत्फ़-ए-ऐश नहीं
हर-दम अफ़्सुर्दगी सी रहती है

शब-ए-ग़म की सहर में नूर कहाँ
सुब्ह भी शाम ही सी रहती है

ये नहीं है कि पर्दा पड़ जाए
नश्शे में आगही सी रहती है

रहते हैं गुल लहद के पज़मुर्दा
शम्अ' भी कुछ बुझी सी रहती है

हो गई क्या बला मिरे घर को
रात-दिन तीरगी सी रहती है

अब जुनूँ की एवज़ है याद-ए-जुनूँ
हाथ में हथकड़ी सी रहती है

कफ़-ए-पा से हिना नहीं छुटती
आग ये कुछ दबी सी रहती है

तेरी तस्वीर हो कि तेग़ तिरी
हम से हर-दम खिंची सी रहती है

बदले बोतल के अब हरम में 'रियाज़'
हाथ में ज़मज़मी सी रहती है