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इश्क़ में छेड़ हुई दीदा-ए-तर से पहले | शाही शायरी
ishq mein chheD hui dida-e-tar se pahle

ग़ज़ल

इश्क़ में छेड़ हुई दीदा-ए-तर से पहले

हफ़ीज़ जालंधरी

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इश्क़ में छेड़ हुई दीदा-ए-तर से पहले
ग़म के बादल जो उठे तो यहीं पर से पहले

अब जहन्नम में लिए जाती है दिल की गर्मी
आग चमकी थी ये अल्लाह के घर से पहले

हाथ रख रख के वो सीने पे किसी का कहना
दिल से दर्द उठता है पहले कि जिगर से पहले

दिल को अब आँख की मंज़िल में बिठा रक्खेंगे
इश्क़ गुज़रेगा इसी राहगुज़र से पहले

वो हर वादे से इंकार ब-तर्ज़-ए-इक़रार
वो हर इक बात पे हाँ लफ़्ज़-ए-मगर से पहले

मेरे क़िस्से पे वही रौशनी डाले शायद
शम-ए-कम-माया जो बुझती है सहर से पहले

चाक-ए-दामानी-ए-गुल का है गिला क्या बुलबुल
कि उलझता है ये ख़ुद बाद-ए-सहर से पहले

कुछ समझदार तो हैं नाश उठाने वाले
ले चले हैं मुझे इस राहगुज़र से पहले

दिल नहीं हारते यूँ बाज़ी-ए-उल्फ़त में 'हफ़ीज़'
खेल आग़ाज़ हुआ करता है सर से पहले