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इश्क़ में बू है किबरियाई की | शाही शायरी
ishq mein bu hai kibriyai ki

ग़ज़ल

इश्क़ में बू है किबरियाई की

बक़ा उल्लाह 'बक़ा'

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इश्क़ में बू है किबरियाई की
आशिक़ी जिस ने की ख़ुदाई की

हम-सरी मत सबा से कर ऐ आह
तू ने भी कुछ गिरह-कुशाई की

ले चले हम क़फ़स से ऐ सय्याद
ख़ाक में आरज़ू रिहाई की

रोज़-ए-महशर तलक न आख़िर हों
दास्तानें शब-ए-जुदाई की

शैख़-जीव से हुई न सरज़द बाव
चूल बोली है चारपाई की

जिस में यारान-ए-बज़्म हों महज़ूज़
यूँ 'बक़ा' मैं ग़ज़ल-सराई की

मीर भी वर्ना ख़ूब कहते हैं
काटिए जेब उन की दाई की