इश्क़ में बू है किबरियाई की
आशिक़ी जिस ने की ख़ुदाई की
हम-सरी मत सबा से कर ऐ आह
तू ने भी कुछ गिरह-कुशाई की
ले चले हम क़फ़स से ऐ सय्याद
ख़ाक में आरज़ू रिहाई की
रोज़-ए-महशर तलक न आख़िर हों
दास्तानें शब-ए-जुदाई की
शैख़-जीव से हुई न सरज़द बाव
चूल बोली है चारपाई की
जिस में यारान-ए-बज़्म हों महज़ूज़
यूँ 'बक़ा' मैं ग़ज़ल-सराई की
मीर भी वर्ना ख़ूब कहते हैं
काटिए जेब उन की दाई की
ग़ज़ल
इश्क़ में बू है किबरियाई की
बक़ा उल्लाह 'बक़ा'