इश्क़ में बर्बाद होने के सिवा रक्खा न था
ग़म को सहने के अलावा कोई भी चारा न था
याद रह रह कर किसी की है सताती रात भर
सुब्ह होते भूल जाना ये तुझे शेवा न था
ये तिरी उल्फ़त मुझे रखती है बेताबी में गुम
ये सभी को थी ख़बर लेकिन कोई चर्चा न था
आईना देखूँ तो क्यूँ तू ही नज़र आए मुझे
बोलता है क्या तिरा चेहरा मेरे जैसा न था
दिन गुज़र जाता है दुनिया की मसाफ़त में मगर
रात ही इक इम्तिहाँ है जिस का अंदाज़ा न था
रात की तन्हाइयाँ आग़ोश में ले कर मुझे
पूछती हैं क्या कभी तन्हाइयाँ देखा न था
क्या मोहब्बत वो नशा है मैं ज़रा जानूँ 'निसार'
ज़िंदगी में इस तरह पहले कभी बहका न था
ग़ज़ल
इश्क़ में बर्बाद होने के सिवा रक्खा न था
अहमद निसार