इश्क़ की दस्तरस में कुछ भी नहीं
जान-ए-मन! मेरे बस में कुछ भी नहीं
इक तिरी याद का तसलसुल है
और तार-ए-नफ़स में कुछ भी नहीं
राज़दार-ए-बहार-ए-रफ़्ता न हो
यूँ तो इस ख़ार-ओ-ख़स में कुछ भी नहीं
परवरिश पा रहा है नख़्ल-ए-ज़ियाँ
नफ़अ क्या इस बरस में कुछ भी नहीं
आख़िर-ए-कार हारने के सिवा
इख़्तियार-ए-हवस में कुछ भी नहीं
इश्क़ पर इख़्तियार है किस का
फ़ाएदा पेश-ओ-पस में कुछ भी नहीं
किस लिए चल पड़ा हूँ में 'साजिद'
जब सदा-ए-जरस में कुछ भी नहीं
ग़ज़ल
इश्क़ की दस्तरस में कुछ भी नहीं
ग़ुलाम हुसैन साजिद