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इश्क़ की दस्तरस में कुछ भी नहीं | शाही शायरी
ishq ki dastaras mein kuchh bhi nahin

ग़ज़ल

इश्क़ की दस्तरस में कुछ भी नहीं

ग़ुलाम हुसैन साजिद

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इश्क़ की दस्तरस में कुछ भी नहीं
जान-ए-मन! मेरे बस में कुछ भी नहीं

इक तिरी याद का तसलसुल है
और तार-ए-नफ़स में कुछ भी नहीं

राज़दार-ए-बहार-ए-रफ़्ता न हो
यूँ तो इस ख़ार-ओ-ख़स में कुछ भी नहीं

परवरिश पा रहा है नख़्ल-ए-ज़ियाँ
नफ़अ क्या इस बरस में कुछ भी नहीं

आख़िर-ए-कार हारने के सिवा
इख़्तियार-ए-हवस में कुछ भी नहीं

इश्क़ पर इख़्तियार है किस का
फ़ाएदा पेश-ओ-पस में कुछ भी नहीं

किस लिए चल पड़ा हूँ में 'साजिद'
जब सदा-ए-जरस में कुछ भी नहीं