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इश्क़ की बीमारी है जिन को दिल ही दिल में गलते हैं | शाही शायरी
ishq ki bimari hai jinko dil hi dil mein galte hain

ग़ज़ल

इश्क़ की बीमारी है जिन को दिल ही दिल में गलते हैं

रज़ा अज़ीमाबादी

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इश्क़ की बीमारी है जिन को दिल ही दिल में गलते हैं
मुर्दे हैं वो हक़ीक़त में ज़ाहिर में फिरते चलते हैं

जब राह में मिल गए कहने लगे तेरे ही घर में जाता था
जाओ चले लड़का तू नहीं मैं मुझ को अपने मचलते हैं

औरों के लगाने-बुझाने से इतना जलाते हो मुझ को
डरिए हमारी आहों से हम लोग भी जलते-बलते हैं

सब कहते हैं उन के मुँह में तो आब-ए-हयात भरा है सब
हम से जो करते हैं बातें फिर क्यूँ ज़हर उगलते हैं

कैसे ही दर्द का शेर पढ़ें वे यूँ भी न पूछे क्या बक गए
जिन के दिल पत्थर हैं सो कब इन बातों से पिघलते हैं

बस करिए चुप रहिए अब खुलवाना राज़ों का ख़ूब नहीं
मलते हैं हम हाथ पड़े कोई और कुछ और ही मलते हैं

मेरे अश्क-ए-सुर्ख़ से तुम यूँ ग़ाफ़िल हो अफ़्सोस अफ़्सोस
देखो तो ये ल'अल के टुकड़े कैसे ख़ाक में रुलते हैं

शायद आते जाते फिर उस ख़ाना-जंग से बिगड़ी है
घर से बहुत कम मीर-'रज़ा'-जी अब इन रोज़ों निकलते हैं