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इश्क़ के हाथों में परचम के सिवा कुछ भी नहीं | शाही शायरी
ishq ke hathon mein parcham ke siwa kuchh bhi nahin

ग़ज़ल

इश्क़ के हाथों में परचम के सिवा कुछ भी नहीं

उरूज ज़ैदी बदायूनी

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इश्क़ के हाथों में परचम के सिवा कुछ भी नहीं
उस का आलम तेरे आलम के सिवा कुछ भी नहीं

बे-यक़ीनी सू-ए-ज़न ईमान-ए-नाक़िस की दलील
फ़िक्र-ए-राहत खतरा-ए-ग़म के सिवा कुछ भी नहीं

हम से पूछो हम बताएँ ग़ायत-ए-कौन-ओ-मकाँ
कारगाह-ए-इब्न-ए-आदम के सिवा कुछ भी नहीं

आतिश-ए-नफ़रत से अब दुनिया है ऐसे मोड़ पर
दीदा-वर गो ये जहन्नम के सिवा कुछ भी नहीं

याद-ए-अय्यामे कि ये भी जान-ए-रज़्म-ओ-बज़्म थे
जिन के पास अब चश्म-ए-पुर-नम के सिवा कुछ भी नहीं

हम नहीं मिनजुमला अहल-ए-रज़ा क्यूँ कर कहें
जिन के लब पर क़िस्सा-ए-ग़म के सिवा कुछ भी नहीं

अहल-ए-दुनिया के लिए जो अब्र-ए-नैसाँ था 'उरूज'
अब वो इंसाँ अश्क-ए-शबनम के सिवा कुछ भी नहीं